Skip to main content

हमारे शब्द ही हमारे कर्म है।

                       *हमारे शब्द ही हमारे कर्म है।*



                         *महाभारत के युद्ध के बाद*

 18 दिन के युद्ध ने द्रोपदी की उम्र को 80 वर्ष जैसा कर दिया था शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी। उसकी आंखे मानो किसी खड्डे में धंस गई थी, उनके नीचे के काले घेरों ने उसके रक्ताभ कपोलों को भी अपनी सीमा में ले लिया था। श्याम वर्ण और अधिक काला हो गया था । युद्ध से पूर्व प्रतिशोध की ज्वाला ने जलाया था और युद्ध के उपरांत पश्चाताप की आग तपा रही थी । ना कुछ समझने की क्षमता बची थी ना सोचने की । कुरूक्षेत्र मेें चारों तरफ लाशों के ढेर थे । जिनके दाह संस्कार के लिए न लोग उपलब्ध थे न साधन । शहर में चारों तरफ विधवाओं का बाहुल्य था पुरुष इक्का-दुक्का ही दिखाई पड़ता था अनाथ बच्चे घूमते दिखाई पड़ते थे और उन सबकी वह महारानी द्रौपदी हस्तिनापुर केे महल मेंं निश्चेष्ट बैठी हुई शूूूून्य को ताक रही थी । तभी कृष्ण कक्ष में प्रवेश करते हैं !
महारानी द्रौपदी की जय हो ।
द्रौपदी कृष्ण को देखते ही दौड़कर उनसे लिपट जाती है कृष्ण उसके सर को सहलातेे रहते हैं और रोने देते हैं थोड़ी देर में उसे खुद से अलग करके समीप के पलंग पर बिठा देते हैं ।
*द्रोपती* :- यह क्या हो गया सखा ऐसा तो मैंने नहीं सोचा था ।
*कृष्ण* :-नियति बहुत क्रूर होती है पांचाली वह हमारे सोचने के अनुरूप नहीं चलती हमारे कर्मों को परिणामों में बदल देती है तुम प्रतिशोध लेना चाहती थी और तुम सफल हुई द्रौपदी ! तुम्हारा प्रतिशोध पूरा हुआ । सिर्फ दुर्योधन और दुशासन ही नहीं सारे कौरव समाप्त हो गए तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए !
*द्रोपती*:-सखा तुम मेरे घावों को सहलाने आए हो या उन पर नमक छिड़कने के लिए !
*कृष्ण* :-नहीं द्रौपदी मैं तो तुम्हें वास्तविकता से अवगत कराने के लिए आया हूं । हमारे कर्मों के परिणाम को हम दूर तक नहीं देख पाते हैं और जब वे समक्ष होते हैं तो हमारे हाथ मेें कुछ नहीं रहता ।
*द्रोपती* :-तो क्या इस युद्ध के लिए पूर्ण रूप से मैं ही उत्तरदाई हूं कृष्ण ?
*कृष्ण* :-नहीं द्रौपदी तुम स्वयं को इतना महत्वपूर्ण मत समझो ।
लेकिन तुम अपने कर्मों में थोड़ी सी भी दूरदर्शिता रखती तो स्वयं इतना कष्ट कभी नहीं पाती।

*द्रोपती* :-मैं क्या कर सकती थी कृष्ण ?
*कृष्ण*:- जब तुम्हारा स्वयंबर हुआ तब तुम कर्ण को अपमानित नहीं करती और उसे प्रतियोगिता में भाग लेने का एक अवसर देती तो शायद परिणाम कुछ और होते !
इसके बाद जब कुंती ने तुम्हें पांच पतियों की पत्नी बनने का आदेश दिया तब तुम उसे स्वीकार नहीं करती तो भी परिणाम कुछ और होते ।
             और
उसके बाद तुमने अपने महल में  दुर्योधन को अपमानित किया वह नहीं करती तो तुम्हारा चीर हरण नहीं होता तब भी शायद परिस्थितियां कुछ और होती ।

*हमारे शब्द भी हमारे कर्म होते हैं द्रोपदी और हमें अपने हर शब्द को बोलने से पहले तोलना बहुत जरूरी होता है अन्यथा उसके दुष्परिणाम सिर्फ स्वयं को ही नहीं अपने पूरे परिवेश को दुखी करते रहते हैं ।*
*अब तुम हस्तिनापुर की महारानी हो और इस समय हस्तिनापुर बहुत कष्ट में है तुम्हें महाराज युधिष्ठिर की निराशा को समाप्त करके उन्हे गतिशील करना होगा हस्तिनापुर के पुनरुद्धार का कार्य  तीव्र गति से करना होगा  उठो और अपने कर्म  लग जाओ यही प्रकृति का संकेत है ।

*हमें कुछ कहते वक्त अपने शब्दों का चयन होशियारी और समझदारी से करना चाहिये*।
*साथ ही इस बात का अनुमान भी हमें होना चाहिए कि उसका  परिणाम क्या निकलेगा.*अगर हम यह अनुमान लगाने में सक्षम होंगे, तो हम आसानी से विचार कर सकते है कि हमें क्या बोलना चाहिए और क्या नहीं बोलना चाहिए.*
*बोलने की कला और व्यवहार कुशलता के बगैर प्रतिभा हमेशा हमारे काम नहीं आ सकती. शब्दों से हमारा नजरिया झलकता है. शब्द दिलों को जोड़ सकते है, तो हमारी भावनाओ को चोट भी पहुंचा सकते है और रिश्तों में दरार भी पैदा कर सकते है. सोच कर बोले, न की बोल के सोचे. समझदारी और नासमझी में यही बड़ा फर्क है.*।

Comments

Popular posts from this blog

*एक सच्ची कहानी*

                    *एक सच्ची कहानी* रमेश चंद्र शर्मा, जो पंजाब के 'खन्ना' नामक शहर में एक मेडिकल स्टोर चलाते थे, उन्होंने अपने जीवन का एक पृष्ठ खोल कर सुनाया जो पाठकों की आँखें भी खोल सकता है और शायद उस पाप से, जिस में वह भागीदार बना, उस से बचा सकता है। रमेश चंद्र शर्मा का पंजाब के 'खन्ना' नामक शहर में एक मेडिकल स्टोर था जो कि अपने स्थान के कारण काफी पुराना और अच्छी स्थिति में था। लेकिन जैसे कि कहा जाता है कि धन एक व्यक्ति के दिमाग को भ्रष्ट कर देता है और यही बात रमेश चंद्र जी के साथ भी घटित हुई। रमेश जी बताते हैं कि मेरा मेडिकल स्टोर बहुत अच्छी तरह से चलता था और मेरी आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी थी। अपनी कमाई से मैंने जमीन और कुछ प्लॉट खरीदे और अपने मेडिकल स्टोर के साथ एक क्लीनिकल लेबोरेटरी भी खोल ली। लेकिन मैं यहां झूठ नहीं बोलूंगा कि मैं एक बहुत ही लालची किस्म का आदमी था क्योंकि मेडिकल फील्ड में दोगुनी नहीं बल्कि कई गुना कमाई होती है। शायद ज्यादातर लोग इस बारे में नहीं जानते होंगे कि मेडिकल प्रोफेशन में 10 रुपये में आने वाली दवा आराम से 70-80 रुपये में बिक ज

कौवा और हंस प्रवृति।।।।।

 *प्राचीन समय की बात है : एक शहर में दो ब्राह्मण पुत्र रहते थे, एक गरीब था..दूसरा अमीर*     *दोनों पड़ोसी थे. गरीब ब्राम्हण की पत्नी उसे रोज़ ताने देती और झगड़ती* *एकादशी के दिन गरीब ब्राह्मण पुत्र झगड़ों से तंग आकर जंगल की ओर चल पड़ता है, ये सोच कर कि जंगल में शेर या कोई जंगली जानवर उसे मार कर खा जायेगा, उसका पेट भर जायेगा और मरने से रोज की झिक- झिक से मुक्त हो जायेगा* *जंगल में पहुंचते ही उसे एक गुफ़ा नज़र आती है; वो उस गुफ़ा की तरफ़ जाता है..गुफ़ा में एक शेर सोया हुआ था और शेर की नींद में ख़लल न पड़े इसके लिये हंस का पहरा था* *हंस ज़ब दूर से ब्राह्मण पुत्र को आता देखता है तो चिंता में पड़कर सोचता है..ये ब्राह्मण आयेगा, शेर जागेगा और इसे मारकर खा जायेगा..एकादशी के दिन मुझे पाप लगेगा..इसे बचायें कैसे?* *उसे उपाय सूझता  है और वो शेर के भाग्य की तारीफ़ करते हुए कहता है..ओ जंगल के राजा! उठो,जागो आज आपके भाग खुले हैं, एकादशी के दिन खुद विप्र- देव आपके घर पधारे हैं, जल्दी उठें और इन्हें दक्षिणा दें; रवाना करें; आपका मोक्ष हो जायेगा..ये दिन दुबारा आपकी जिंदगी में शायद ही आये, आपको पशु-योनी

एक कथा

*🙏एक प्रेरक कथा🙏*               एक ब्राह्मण यात्रा करते-करते किसी नगर से गुजरा बड़े-बड़े महल एवं अट्टालिकाओं को देखकर ब्राह्मण भिक्षा माँगने गया.         किन्तु किसी ने भी उसे दो मुट्ठी अऩ्न नहीं दिया. आखिर दोपहर हो गयी. ब्राह्मण दुःखी होकर, अपने भाग्य को कोसता हुआ जा रहा थाः “कैसा मेरा दुर्भाग्य है. इतने बड़े नगर में मुझे खाने के लिए दो मुट्ठी अन्न तक न मिला. रोटी बना कर खाने के लिए, दो मुट्ठी आटा तक न मिला ! इतने में एक सिद्ध संत की निगाह उस पर पड़ी. उन्होंने ब्राह्मण की बड़बड़ाहट सुन ली. वे बड़े पहुँचे हुए संत थे. उन्होंने कहाः “ब्राह्मण  तुम मनुष्य से भिक्षा माँगो, पशु क्या जानें भिक्षा देना ?” ब्राह्मण दंग रह गया और कहने लगाः “हे महात्मन्  आप क्या कह रहे हैं ? बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में रहने वाले मनुष्यों से ही मैंने भिक्षा माँगी है”. संतः “नहीं ब्राह्मण. मनुष्य शरीर में दिखने वाले वे लोग भीतर से मनुष्य नहीं हैं.       अभी भी वे पिछले जन्म के हिसाब ही जी रहे हैं. कोई शेर की योनी से आया है, तो कोई कुत्ते की योनी से आया है. कोई हिरण की योनी से आया है, तो कोई गाय या भैंस